चिपको आंदोलन!– हम न गौरा के चिपको आंदोलन को समझ सके, न चिपको की मूल अवधारणा और न ही हिमालय को..

0
Share at

 चिपको आंदोलन!– हम न गौरा के चिपको आंदोलन को समझ सके, न चिपको की मूल अवधारणा और न ही हिमालय को..


(चिपको आंदोलन!– हम न गौरा के चिपको आंदोलन को समझ सके, न चिपको की मूल अवधारणा और न ही हिमालय को..

(चिपको आंदोलन के 48 साल पूरे होने पर विशेष)

ग्राउंड जीरो से संजय चौहान! 

आज गौरा का अंग्वाल (चिपको) आंदोलन 48 बरस का हो गया है। चिपको आंदोलन के जरिये पूरे विश्व को पर्यावरण संरक्षण का अनूठा मंत्र देने वाली गौरा देवी के चिपको आंदोलन की महत्ता को हम 48 बरस बाद भी नहीं समझ सके। हमनें चिपको की गाथा को केवल सेमिनारों, पोस्टरों और अखबारों के पेजों की शोभा बढाया, असल मायनों में हमने गौरा के अंग्वाल को जाना ही नहीं और न ही कभी धरातलीय प्रयास किये। आज के पर्यावरणीय असंतुलन के दौर में जिस चिपको की सबसे ज्यादा जरूरत थी उसी चिपको को हमनें बिसरा दिया है। बिगत एक पखवाड़े से जिस तरह से बेहताशा गर्मी बढी है उसने पहाडों में मार्च महीने में ही बर्फ पिघला दी है जो पर्यावरणीय दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है।


ये था गौरा का चिपको (अंग्वाल) आंदोलन!


मैं गौरा का अंग्वाल (चिपको आन्दोलन) हूँ। मैंने विश्व को अंग्वाल के जरिये पेड़ों को बचाने और पर्यावरण संरक्षण का अनोखा मंत्र दिया। जिसके बाद पूरी दुनिया मुझे चिपको के नाम से जानने लगी। मेरा उदय 70 के दशक के प्ररारम्भ में विकट व विषम परस्थितियों में उस समय हुआ जब गढ़वाल के रामपुर- फाटा, मंडल घाटी, से लेकर जोशीमठ की नीति घाटी के हरे भरे जंगलों में मौजूद लाखों पेड़ो को काटने की अनुमति शासन और सरकार द्वारा दी गई। इस फरमान ने मेरी मात्रशक्ति से लेकर पुरुषों को उद्वेलित कर दिया था। जिसके बाद मेरे सूत्रधार चंडी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह बिस्ट, वासवानंद नौटियाल, गोविन्द सिंह रावत, तत्कालीन गोपेश्वर महाविद्यालय के छात्र संघ के सम्मानित पधादिकारी सहित सीमांत की मात्रशक्ति और वो कर्मठ, जुझारू, लोग जिनकी तस्वीर आज 47 साल बाद भी मेरी मस्तिष्क पटल पर साफ़ उभर रही है ने मेरी अगुवाई की। मेरे लिए गौचर, गोपेश्वर से लेकर श्रीनगर, टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी में गोष्ठियों का आयोजन भी किया गया। अप्रैल 1973 में पहले मंडल के जंगलों को बचाया गया और फिर रामपुर फाटा के जंगलो को कटने से बचाया गया। जो मेरी पहली सफलता थी। 


जिसके बाद सरकार मेरे रैणी के हर भरे जंगल के लगभग 2500 पेड़ो को हर हाल में काटना चाहती थी। जिसके लिए साइमन गुड्स कंपनी को इसका ठेका दे दिया गया था। 18 मार्च 1974 को साइमन कम्पनी के ठेकेदार से लेकर मजदुर अपने खाने पीने का बंदोबस्त कर जोशीमठ पहुँच गए थे। 24 मार्च को जिला प्रसाशन द्वारा बड़ी चालकी से एक रणनीति बनाई गई जिसके तहत मेरे सबसे बड़े योद्धा चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य को जोशीमठ-मलारी सडक में कटी भूमि के मुवाअजे दिलाने के लिए बातचीत हेतु गोपेश्वर बुलाया गया। जिसमे यह तय हुआ की सभी लोगो के 14 साल से अटके भूमि मुवाअजे को 26 मार्च के दिन चमोली तहसील में दिया जायेगा। वहीँ प्रशासन नें दूसरी और मेरे सबसे बड़े सारथी गोविन्द सिंह रावत को जोशीमठ में ही उलझाए रखा ताकि कोई भी रैणी न जा पाये। 25 मार्च को सभी मजदूरो को रैणी जाने का परमिट दे दिया गया। 


26 मार्च 1974 को रैणी और उसके आस पास के सभी पुरुष भूमि का मुवाअजा लेने के लिए चमोली आ गए और गांव में केवल महिलायें और बच्चे, बूढ़े मौजूद थे। अपने अनुकूल समय को देखकर साइमन कम्पनी के मजदूर और ठेकेदार ने रैणी के जंगल में धावा बोल दिया। और जब गांव की महिलाओं ने मजदूरों को बड़ी बड़ी आरियाँ और कुल्हाड़ी सहित हथियारों को अपने जंगल की और जाते देखा तो उनका खून खौल उठा वो सब समझ गए की इसमें जरुर कोई बड़ी साजिश की बू आ रही है। उन्होंने सोचा की जब तक पुरुष आते हैं तब तक तो सारा जंगल नेस्तानाबुत हो चूका होगा। ऐसे में मेरे रैणी गांव की महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी ने वीरता और साहस का परिचय देते हुये गांव की सभी महिलाओं को एकत्रित किया और दारांती के साथ जंगल की और निकल पड़े। सारी महिलायें पेड़ो को बचाने के लिए ठेकदारों और मजदूरों से भिड गई। उन्होंने किसी भी पेड़ को न काटने की चेतावनी दी। काफी देर तक महिलायें संघर्ष करती रही। इस दौरान ठेकेदार नें महिलाओं को डराया धमकाया। पर महिलाओं ने हार नहीं मानी। उन्होंने कहा ये जंगल हमारा मायका है, हम इसको कटने नहीं देंगे। चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े। महिलाओं की बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ। जिसके बाद सभी महिलायें पेड़ो पर अंग्वाल मारकर चिपक गई। और कहने लगी की इन पेड़ो को काटने से पहले हमें काटना पड़ेगा। काफी देर तक महिलाओं और ठेकेदार मजदूरो के बीच संघर्ष चलता रहा। आखिरकार महिलाओं की प्रतिबद्दता और तीखे विरोध को देखते हुये ठेकदार और मजदूरो को बेरंग लौटना पड़ा। और इस तरह से महिलाओं ने अपने जंगल को काटने से बचा लिया। 


देर शाम को जब पुरूष गांव पहुंचे तो तब जाकर उन्हें इसका पता लगा। तब तक मैं अंग्वाल की जगह चिपको के नाम से जानी जाने लगी थी। उस समय आज के जैसा डिजिटल का जमाना नहीं था। लेकिन इसकी गूंज अगले दिन तक चमोली सहित अन्य जगह सुनाई देने लगी थी। लोग मेरी धरती की और आने लगे थे। मेरी अभूतपूर्व सफलता में 30 मार्च को रैणी से लेकर जोशीमठ तक विशाल विजयी जुलुस निकाला गया। जिसमे सभी पुरुष और महिलायें परम्परागत परिधानों और आभूषणों में लकदक थे। साथ ही ढोल दंमाऊ की थापों से पूरा सींमात खुशियों से सरोबोर था। इस जलसे के साक्षी रहे लोग कहते है की ऐसा ऐतिहासिक जुलुस प्रदर्शन उन्होंने आज तक नहीं देखा गया। वो जुलुस अपने आप में अभूतपूर्व था। जिसने सींमात से लेकर दुनिया अपना परचम लहराया था।


चिपको आंदोलन के दौरान ये गीत हर किसी की जुबान पर था।

———————

चिपका डाल्युं पर न कटण द्यावा,

पहाड़ो की सम्पति अब न लुटण द्यावा।

मालदार ठेकेदार दूर भगोला, 

छोटा- मोटा उद्योग घर मा लगुला।

हरियां डाला कटेला दुःख आली भारी,

रोखड व्हे जाली जिमी-भूमि सारी। 

सुखी जाला धारा मंगरा, गाढ़ गधेरा, 

कख बीठीन ल्योला गोर भेन्स्युं कु चारू। 

चल बैणी डाली बचौला, ठेकेदार मालदार दूर भगोला ।..


 रैणी गांव– पर्यावरण संरक्षण के लिए दुनिया को दिया चिपको का मंत्र, ऋषि गंगा आपदा नें इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदल डाला.. 


चिपको के जरिए पूरे विश्व को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाली गौरा का रैणी वीरान है। हमने विकास के लिए अति संवेदनशील हिमालय में विकासपरक परियोजनाओं  को हरी झंडी दी और उसका नतीजा ये हुआ की हमें ऋषि गंगा जैसी विनाशकारी आपदा का सामना करना पडा। हमने परियोजना के आस पास ग्लेशियरों का न अध्ययन किया न हिमालय में हो रही हलचलों के लिए कोई व्यापक अध्ययन। पिछले साल फरवरी महीने में ग्लेशियर टूटने के बाद ऋषि गंगा नदी में आयी आपदा नें गांव को भूस्खलन की जद में ला दिया है। जिस कारण रैणी गांव में निवासरत 50 से अधिक परिवारों को अपने भविष्य की चिंता सता रही है। भू-वैज्ञानिकों ने रैणी गांव में भूगर्भीय सर्वेक्षण की भूगर्भीय रिपोर्ट में कहा कि रैणी गांव का निचला हिस्सा मानवीय बसावट के लिए सुरक्षित नहीं है। इसलिए यहाँ निवासरत परिवारों का अन्यत्र पुनर्वास किया जाना चाहिए। ऋषि गंगा आपदा नें गौरा के रैणी का इतिहास ही नहीं बल्कि भूगोल भी बदल डाला है। 


वास्तव में देखा जाए तो हमें गौरा देवी के पर्यावरण संरक्षण के चिपको आंदोलन से सीख लेने की आवश्यकता है और भविष्य को देखते हुए धरातलीय कार्य को अमलीजामा पहनाया जाना चाहिए। गौरा देवी के नाम पर चमोली में गौरा देवी हिमालयी एंव पर्यावरण शोध संस्थान या विश्वविद्यालय खोला जाना चाहिए। जिसमें छात्र छात्राओं और शोधार्थियों को पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा उपलब्ध कराई जाय ताकि युवा पीढ़ी और लोगों को पर्यावरण की महत्ता की जानकारी हो सके। यहाँ पर्यावरण और हिमालय पर बडे बडे व्याख्यान और चिंतन मनन होने चाहिए। देश विदेश के विभिन्न लोगों को यहाँ आमंत्रित किया जाना चाहिए। इस संस्थान के जरिए हिमालय और पर्यावरण को लेकर नित अध्ययन और शोध होते रहें तब कहीं जाकर हम गौरा के चिपको आंदोलन की महत्ता को सार्थक साबित कर पानें में सफल हो पायेंगे। ( उक्त संस्थान खोलने को लेकर ये मेरे निजी विचार और मत है, जरूरी नहीं की आप भी सहमत हो)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may have missed