बूढ़ी हो चली पहाड़ी शादियों की कई परम्परागत रस्में

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 बूढ़ी हो चली पहाड़ी शादियों की कई परम्परागत रस्में

 

कुसुम जोशी/केदारखण्ड एक्सप्रेस न्यूज़

रोका, सगाई  या इन्गेजमैंट जैसे शब्द हमारे पर्वतीय समाज में चलन में नहीं थे. टीका लगाने के बाद शादी की तैयारियां शुरू हो जाती. तब यातायात साधनों का नितान्त अभाव था. बारातें पैदल कई कई मील की पैदल यात्राएं करती, कभी-कभी तो बारात को रात्रि में कहीं पड़ाव डालकर दो या तीन की पैदल यात्रा भी करनी पड़ती. संचार साधनों के नाम पर केवल चिट्ठियां ही संदेश भेजने का साधन थी, जो कई-कई दिनों या हफ्तों में दूसरे तक पहुंच पाती. बारात जब घर के द्वार पर पहुंचती, तभी कन्या पक्ष के लोग आश्वस्त होते. इस संशय के चलते व्यवस्था बनी  ‘मस-चवईयों’ ( मास चावल लेकर अगवानी करने वाले) की रस्म की. बारात रवानगी से पहले गांव के दो सम्भ्रान्त व विश्वनीय व्यक्तियों को कन्या पक्ष के पास आश्वस्त करने के लिए भेजा जाता कि बारात उनके पीछे आ रही हैं, कभी-कभी विशेष रूप से ब्राह्मण परिवारों में ‘पिठ्या लगाना’ यानि टीके की रस्म अदायगी की जाती थी । 

गांव के लोगों में एकता रहती थी सारे गांव के लोग लकड़ी इकट्ठा करने से लेकर घर की साफ-सफाई, रंगाई, पोताई, बर्तनों की व्यवस्था तक हर काम में हाथ बंटाते और मिल जुलकर ही बारात के स्वागत में खाना तैयार होता तथा पंगत में बैठकर खिलाया जाता. बारात के खानों में पूड़ी, बड़ा, सूजी का हलवा, दो एक सब्जी तथा अमचूर की खटाई और ज्यादा से ज्यादा रायता रहता. लेकिन पंगत में बैठकर जिस प्यार से वह वितरित किया जाता और पेट भरने पर भी इच्छा न भरने का जो जायका रहता, वह आज के ‘बुफे सिस्टम’ में कहां?

बिजली तब थी नहीं, इसलिए पैट्रोमैक्स का ही इस्तेमाल होता और पैट्रोमैक्स जलाने वाले कुछ एक्सपर्ट गांव में ही हर पीढ़ी को मिल जाते. बुजुर्ग लोग जो बड़े कामों में हाथ नहीं बंटा पाते, उनको पतंगी कागज की लाल, नीली, पीली पन्नियों को तिकोना काटकर सुतली में गच्छयाने का काम सौंपा जाता तथा कुछ उत्साही युवक पय्या की टहनियों तथा केले के पत्तों से तोरण द्वार सजाते, जिसमें टूल के लाल कपड़े में पहले लेई (आटे को पकाकर बनाया जाने वाला लेप) से स्वागतम् लिखा जाता और उसके ऊपर सफेद रूई चिपकाकर स्वागतम् का बैनर तैयार हो जाता.

घर की महिलायें अनाज की कुटाई, पिसाई तथा दाल चावल आदि बीनने के कार्य में जुट जाती और लग्न की तिथि से एक दिन पूर्व रंगवाली करने का काम होता. सफेद सूती धोती को पीले रंग में रंगकर सुखा दिया जाता. सूख जाने पर सब महिलाऐं मिलकर रंगवाली पिछौडे़ में रंगवाली करती. रंगवाली पिछौड़े में आलेखन के अलावा तांबे के डबल को एक कपड़े में लपेटकर तथा लाल रंग में डुबोकर सुन्दर बूटे छापे जाते. यह भी रस्म का एक अहम हिस्सा होता. साथ ही वर व आचार्य के लिए पीली धोती भी घर पर ही रंगी जाती. कन्या के विवाह में  बारातियों को विशेष सम्मान दिया जाता और जब तक सारे बारातियों ने भोजन ग्रहण न कर लिया हो तो क्या मजाल कि कोई घराती भोजन कर ले.


बात यदि महिला संगीत कार्यक्रम की करें तो पहले इसकी प्रथा नहीं थी, सुआल पथाई के समय ही मांगलिक गीत गाये जाते. महिला संगीत का चलन शहरी सभ्यता से आयातित हैं. बल्कि अब तो इसे महिला संगीत न कहकर महिला नृत्य का कार्यक्रम कहा जाना चाहिये. क्योंकि शुरूआत में महिलाओं द्वारा एक-दो गीत गाने की रस्म अदायगी कर बाकी सब ‘डीजे’ में ही गाने बजाये जाते हैं. महिलायें केवल इन्हीं फिल्मी, पंजाबी तथा पहाड़ी गानों में नृत्य का प्रदर्शन करती हैं. पहाड़ी गाने भी ऐसे जिनमें पहाड़ीपन की झलक नहीं दिखती, गानों का चयन ही कुछ इस तरह होता है, जिसमें ‘फास्ट म्यूजिक’ के साथ थिरकने की गति हो. ‘कान में डबल झुमका’ अथवा ‘फ्वां बागा रे’ जैसे गीतों में पहाड़ी संगीत का लालित्य तो कहीं नजर नहीं आता.

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