2013 की आपदा इतनी जल्दी भूल गये, तो तैयार रहे नई आपदा के लिए

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कुलदीप राणा आजाद/सम्पादक केदारखण्ड एक्सप्रेस

मध्य हिमालय की गोद में बसा ग्यारवें ज्योतिर्लिंग बाबा केदारनाथ की वादियों में हैली काॅप्टरों का शोर हिमालयी संरचना पर चोट कर रही हैं। एक तरफ हिमालय की वादियों में इंसानों की भारी भीड़, हुणदंग से हिमालय के शांत स्वभाव में खलल डाला जा रहा है तो दूसरी तरफ हैली काॅप्टरों के कांनफोडू शोर ने यहां की प्रकृति को बैचेन किया हुआ है, जबकि आधुनिक मशीनों का निर्माण कार्य और प्रदूषण हिमालय के घावों को और कुरेदने का कार्य कर रहा है। यह सब कुछ इसी गति से चलता रहा तो जून 2013 जैसा विस्फोट कभी भी हो सकता है।


केदारनाथ में हाल के दस वर्षों में जो कुछ हुआ और हो रहा है वह सबकुछ समझ से परे है। 2013 की प्रलयकारी आपदा के बाद जब हमें हिमालय के प्रति सबसे ज्यादा चिंतित होना था और इसके संरक्षण को लेकर बेहतर कार्य नीति बनाकर व्यवहार में उतारना था तब हमने हिमालय को फिर से नजरअंदाज करना शुरू कर दिया है। भूल गए उस महाविनाश को जिसने सदी की सबसे भीषणतम आपदाओं में अपना नाम दर्ज किया था। अगर हम कहेंगे कि 2013 की आपदा से पूर्व से अधिक वर्तमान में हमने हिमालय के साथ अंधाधुन्ध छेड़छाड़ करना आरम्भ कर दिया है तो इसमें कोई अतिसंयोक्ति नहीं होगी।


वर्ष 2013 में गाँधी सरोवर (चौरावाड़ीताल) से ताल से आये सैलाब का कारण भी ग्लेशियरों का टूटना बताया गया था। तब पर्यावरणविदो, भू वैज्ञानिकों और जानकारों ने बताया था कि यह सब कुछ प्रकृति के विपरीत हो रही गतिविधयों का दुष्परिणाम है। तब हिमालय के संरक्षण को लेकर भी सरकारें बातें करने लगी। लेकिन समय के साथ हम सबकुछ भूल गए हैं। पैसा कमाने की होड़, ऑकडों का कीर्तिमान स्थापित करने की प्रतिस्पर्धा केदारपुरी और हिमालय की परम्परों, मान्यताओं के साथ खिलवाड़ तो किया ही है बल्कि अपने शांत स्वभाव के लिए जाना जाने वाले हिमालय को भी चुनौती दी जा रही है।  लेकिन इतिहास गवाह है जब-जब इंसानों ने प्रकृति की परीक्षा लेने की कोशिस की है तब-तब महाविनाश का सामना करना पड़ा है।


आज केदारनाथ की घाटियों में हैली काॅप्टरों का शोर, लाखों की संख्या में हिमालय में इंसानों का हुजूम, अनेकों वाद्य यंत्रों की गर्जना और पुर्ननिर्माण के नाम पर केदारपुरी को पिकनिक का बाजार बनाने और उसके निमार्ण में भारी भरकम मशीनरी के उपयोग से सीधे हिमालय के ग्लेशियरों पर उसका प्रभाव पड़ रहा है, जिससे हिमालय के स्वभाव में परिवर्तन देखने को मिल रहा है। 16-17 जून 2013 को जिस विध्वंसकारी आपदा का सामने हमने किया है और हजारों लोग इस आपदा में असमय कालकलवित हुए थे, शायद हम उस आपदा के ना तो मायनों को समझ पाये और ना ही उससे सीख ले पाये। केदारनाथ और इस पूरे क्षेत्र में हमारे पूर्वजों ने इस हिमालयी क्षेत्र के लिए जो नियम कायदे और मान्यतायें बनाई थी उनके पीछे हिमालय का संरक्षण करना तो था ही बल्कि प्रकृति के स्वभाव में कोई परिवर्तन न आये इसका भी उन्होंने ध्यान रखा था।


मोक्ष धाम के नाम से विख्यात केदारनाथ में सिर्फ बुजुर्ग लोग ही तीर्थ यात्रा करने जाते थे। लेकिन आज दुधमुँहे बच्चे से लेकर युवाओं का भारी सैलाब यहां उमड़ रहा है। तीर्थ यात्रियों से अधिक पर्यटकों की संख्या यहां पहुँच रही है जिन्हें ना तो यहां की परम्परों से कोई मतलब है और ना ही हिमालय के उस रौन्द्र रूप का डर है। केदारनाथ धाम आज उस टाइम बम की तरह टिक टिक कर है जो कभी भी 2013 जैसी आपदा की पुनर्रावृति कर सकती है। सरकारों को चाहिए कि इस अंत्यधिक संवेदनशील हिमालय के साथ जो छेड़छाड़ की जा रही है उस पर गम्भीरता से रोक लगे। सीमेंट के कंकरीटों से हिमालय को दिल्ली मुम्बई शहर बनाने का जो बेशर्म खिलवाड़ हिमालय की वादियों से किया जा रहा है उस पर रोक लगे। केदारनाथ में आधारभूत सुविधायें वहां के प्रकृति के अनुसार ही विकसित किया जाय। धार्मिक यात्रा को व्यवस्थित कर सीमित संख्या में ही तीर्थ यात्रियों को केदारनाथ भेजे। इसी में केदारनाथ पुरी और केदारघाटी का भविष्य सुरक्षित है।                       –