सोशल मीडिया बैन तो एक बहाना, असल मकसद भ्रष्टाचारियों को हटाना था

अखिलेश डिमरी/पत्रकार
नेपाल में सरकार के खिलाफ हो रहा घनासान प्रदर्शन भले ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर बैन के बाद इस रूप में देखने को नजर आया हो लेकिन असल में इसकी शुरुआत आवाम में खासतौर पर नेपाल के पिछले कई सालों से सरकार की गैरजिम्मेदाराना नीतियों, व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही आवाजों को अनदेखा करने की परिणीति है।

आज भले ही नेपाल के वित्त मंत्री को सड़क पर दौड़ा दौड़ा कर पीटने के वीडियो आए हो , नेपाली पार्लियामेंट को फूंकने की घटना हो या वहां के प्रधानमंत्री का अब किसी गुप्त स्थान को निकल जाना ये आवाम में महज दो दिनों का आक्रोश नहीं बल्कि कई समय से दबी चिंगारी थी जो अब दावानल बन कर दिखाई दे रही है।
ऐसा नहीं कि इस आक्रोश की भोंक सरकार को नहीं थी बल्कि उस भनक का ही परिणाम है कि सोशल मीडिया को बैन करने जैसा कदम उठाना पड़ा ताकि सरकार की नीतियों के खिलाफ आम जन की उठती आवाजों को दबाया जा सके और आक्रोश दबा दिया जाए।
नेपाल में भी मीडिया की दुर्दशा फिलहाल किसी से छुपी नहीं है मीडिया में सत्ता का गुणगान सुन सुन कर अजीज आ चुके वहां के लोगो में सोशल मीडिया ही वो विकल्प था जिसमें वे अपनी बात खुल कर कह रहे थे और मुख्यधारा की मीडिया पर विश्वाश लगभग हाशिए पर था। हालिया चीन दौरे को लेकर भी नेपाली मीडिया ने अपने प्रधानमंत्री का यूं गुणगान किया था मानो वे विश्व के नेताओं की अग्रणी पंक्ति में शामिल हो गए हों और शायद संपूर्ण विश्व उनकी ओर ही ताक रहा हो…!

इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दुखद पहलू केवल ये नहीं कि उन्होंने अपने चुने हुए नेताओं को दौड़ा दौड़ा कर पीटा बल्कि सबसे दुखद पहलू ये है कि लोकतांत्रिक प्रणाली से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की विश्वशनीयता चौराहे पर तार तार हो गई। एक दूसरे के लिए उनके मीडिया की विश्वशनीयता खत्म हो गई जिसके परिणामस्वरूप व्यवस्थाएं चरमरा गई और अराजकता हावी हो गई वो भी इस कदर कि दौड़ा दौड़ा कर पीटे जाने लगे, देश छोड़ कर भागना पड़ रहा है और सड़कों पर लोग मारे जाने लगे…!
हमें अभी तक इस बात का गर्व होना चाहिए कि हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रणालियों की विश्वशनीयता अभी तक लगभग एक स्तर तक बनी हुई है, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में उठते सवालों को दबाने के प्रयास हुए हैं लेकिन बावजूद उसके आवाम और नेतृत्व दोनों ही कम से कम इस हद तक संयमित रहे हैं कि अराजक प्रश्नों के दायरे में हों ऐसा कहा जा सके।
हालांकि पिछले सालों में ही श्रीलंका ,बंगलादेश और उसके बाद अब नेपाल के हालात सरकारों के लिए कड़ा संदेश के रूप में लिए जाने चाहिए कि अब गाल बजाने से , मीडिया मैनेजमेंट के भरोसे ही सब कुछ नहीं होने वाला, सरकारें तो शायद नहीं पर शुरुआत में किसी दिन यही मीडिया सड़क पर उन्हीं हालातों में दौड़ता हुआ नजर आए जैसा आज नेपाल का वित्त मंत्री नजर आया ।
समय हर ओर से संवेदनशील होने का है। लेकिन सरकारों को जवाबदेही, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्याप्त भ्रष्टाचार, गैरजिम्मेदाराना और अहंकारपूर्ण रवैए से कोसों दूर रहने का स्पष्ट संदेश भी हैं। हर आक्रोश एक हद तक ही कुचला जा सकता है लेकिन हर आक्रोश स्वस्थ संवाद से दूर किया जा सकता है।